सोमवार, 16 अप्रैल 2012

फिर सब अच्छा ही होगा!!!


श्वेत श्याम तस्वीर लिए सुबह खड़ी थी... पूरब दिशा में कोई लाली नहीं, कहीं पर नीले रंग की सुषमा नहीं... आकाश काला पड़ा था और धरती सफ़ेद... बर्फ़ से पटी हुई. हवाओं में लहराते बर्फ़ के फाहों को अपने दामन में समेट जैसे ठूंठ पेड़ अपने श्रृंगार का सामान जुटा रहे थे... और गर्मी का मौसम आते आते जैसे राहों में ठिठक गया था कहीं और...! दृश्य बदलते देर नहीं लगती... अब रात ही को तो नीले अम्बर पर चाँद खिला था, सुबह चाँद को तो चले ही जाना था पर नीला अम्बर भी अपना रूप परिवर्तित किये था... मानों चन्द्र वियोग में काला पड़ गया हो और धरा को भी जिद्द वश हरेपन की और बढ़ने से रोक रहा हो, बरस बरस कर एक उजली चादर मानों डाल दी पृथ्वी पर और श्वेत श्याम करके सबकुछ निश्चिंत बैठ गया हो... भला क्या बैर है रंगों से गगन को!!!
उदास होता है जब मन तो रंग, रंग नहीं दीखते... सब विदा हो जाता है आँखों के वृत्त से; अब आसमान उदास होगा तो ऐसा ही कुछ होगा न... उसके वृत्त में रंगों का प्रवेश निषेध हुआ तो धरा को रंग कहाँ से मिलेंगे...? अद्भुत दृश्य सृजित करने वाली बर्फ़ के फाहों की बारिश एक समय के बाद मातमी भी लगती है...! असमय ऐसा क्यूँ....?.... ये तो अप्रैल का महिना है... हरे रंग के विस्तार को देखने को आतुर हैं नयन... रंग बिरंगे फूलों के अवतरित होने की घड़ी है... ऐसे में अपनी सारी दिव्यता के साथ भी आएगी तो प्रभावित नहीं कर पाएगी बर्फ़ीली बारिश...! मखमली घास को छू कर लौटा मन उनके बर्फ़ से आच्छादित होने की कल्पना कर ही सिहर उठता है...
ये तो है हमारा सोचना विचारना हुआ... अब प्रकृति के खेल तो उतने ही निराले हैं... कौन जाने वो क्या सोचती है? कल और आज की सुबह लगता है मानों दो भिन्न मौसम की सुबहें हों... कल था अँधेरा, बर्फ़ ऐसे पड़ रही थी जैसे दिसंबर-जनवरी का महिना हो और अभी यूँ धूप खिली है मानों वो श्वेत श्याम सुबह महीनों पूर्व की बात हो... पेड़ खुश हैं... खिड़कियाँ धूप के आने को राह बना रही हैं और धूप में नाचती किरणें उछलती कूदती कह रही है- 'जाओ देख आओ मखमली घास को... रंग और न निखर आया हो तो कहना!'
वाह री धूप! हम लिख रहे हैं तो साथ साथ तुम पढ़ती भी जा रही हो क्या मेरे मन को...? चलो अच्छा है खिली रहो आज दिन भर, आज वैसे भी बहुत काम है तुम्हें... धरती के नम हिस्सों को ठिठुरन से बचाना है तुम्हें... पोर पोर में समा कर नमीं सोखनी है तुम्हें..., कोर नम रह जाएँ तो रहने देना... धरा की आँखों में खुशियों की धूप भरना हमारा काम है... मिलजुल कर लेंगे हम इस दायित्व का निर्वहन... तुम पेड़ों को जीवन देना, हम मिलजुल कर संवेदनाओं को जीवन देंगे, सौहार्द प्रेम के बीज अंकुरित होंगे... धरा स्वर्ग थी, स्वर्ग है और स्वर्ग ही रहेगी...!
बस देखते रहना... बने रहना और माहौल बनाये रखना... निराश हो जाते हैं हम... इंसान जो हैं...; हे धूप! तुम्हारी तरह खिल कर मुस्कुराहट बिखेरने में दक्ष नहीं हैं हम... तुम्हें लगे रहना है... हमें प्रेरित करते रहना है... लोगों की भीड़ में इंसान तलाशते रहना है... कुछ एक भी मिल गए...फिर क्या, फिर सब अच्छा ही होगा!!!

3 टिप्‍पणियां:

  1. हम मिलजुल कर संवेदनाओं को जीवन देंगे, सौहार्द प्रेम के बीज अंकुरित होंगे... धरा स्वर्ग थी, स्वर्ग है और स्वर्ग ही रहेगी...!

    ....दर्द तो जीवन है ...जो संवेदना से ही मिलता है ....किन्तु भीतर छिपी है सकारात्मकता जो इन संवेदनाओं को भी सकारात्मक रंग भरती है .....फिर नतीजा ....
    धरा स्वर्ग थी ...है ...रहेगी ....!!
    बहुत सुंदर सृजन ....
    मखमली सी भावनाएं ...
    शुभकामनायें ...

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  2. ओह, कितना खूबसूरत लिखा है आपने...बहुत सुन्दर!!! :)

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