सोमवार, 29 जुलाई 2013

अँधेरी दीवार में कुछ एक भुरभुरी ईंटें!


बिखरा हुआ घर… धोये जाने के लिए राह तकते ढ़ेर सारे बर्तन… करीने से रखे जाने के लिए प्रतीक्षारत  फैली हुई किताबें… तह किये जाने को बहुत सारे कपड़े… लिखे जाने को आकुल कई कवितायेँ… पूरे किये जाने को सर पर लटकते  कुछ असाइनमेंट्स… और इस भीड़ में अपने एकांत के साथ एक अकेले हम! क्या करें…  कहाँ से करें शुरू कि ज़रूरी हैं इनमें से हर एक काम को पूरा करना! 
ऐसे में सोचते हैं… चलो कुछ देर के लिए स्थगित रहे सबकुछ… ठीक वैसे ही जैसे कि होता है हम सबके साथ कभी न कभी कि सांसें  आती जाती रहती हैं पर स्थगित हो जाता है जीवन, जैसे रूक गया हो किसी मोड़ पर ठगा सा… अपने आप को ही…  बेतरतीब खोजता हुआ!
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लग रहा है, सबकुछ स्थगित कर अभी अपने आप से बातें करना ही ठीक है… कि रात भर बरसा है अम्बर… उसकी ओर जरा नज़रें टिकाये कुछ थाह लेना सबसे ज़रूरी है अभी…! ऐसा प्रतीत होता है मानों पत्ते एक दूसरे से बातें कर रहे हों और पूरा पेड़ झूम रहा हो यह सौहार्द देख… एक पेड़ का स्पंदन दूजे तक संप्रेषित होता हुआ बांधे हुए है मेरे मन को कमरे के झरोखे से ही… कि यहाँ से महसूस हो रही है वह हवा भी जो माध्यम बन कर एक तरू की संवेदना से दूसरे को जोड़ती हुई बढ़ी जा रही है… अपने गंतव्य की ओर… अपना क्षितिज तलाशने! 
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घोर निराशा के दौर में… इंसानियत के लुप्तप्राय से होते कठिन समय में… दिल दहलाने वाली घटनाओं को रोज़ खबर बनता देखती विवशता में… जैसे हादसों का एक पूरा शहर बसा हो भीतर: ऐसे में धीमे ही सही, सांस ले रही संभावनाओं के प्रति आश्वस्त होने को, हम ऐसी ही देखे जाने को सहर्ष प्रस्तुत छवियों एवं अनुभूतियों का सहारा लेते हैं…! और जीवन को मिल जाती है कहीं से ठीक उतनी उर्जा कि सांस चलती रहे… सहेजा जा सके वह सबकुछ जो अपने जिम्मे है… निपटाया जा सके अपना छोटा छोटा काम  कि व्यवस्थित होंगी चीज़ें तो मन भी व्यवस्थित होगा!
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ये लिखते हुए हमें स्मरण हो आ रही है उले स्वेंसन  की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ… अनुवाद करते हुए जैसे कथ्य आत्मसात हो गया था भीतर फिर अपनी भाषा में सहजता से उतर भी गया… कवि की बात ही इतनी अपनी सी लगी… विश्वास जगाती हुई… विडम्बनाओं के विरुद्ध और जीवन के प्रति प्रतिबद्धता का शंखनाद करती हुई ::

हमें जीने की इच्छा होनी चाहिए,
एक इच्छा जिससे कि गति के नीरस लय में सांस रुकने की स्थिति न आने पाए
और न बैठे ही रहें पुरातन शुष्क परिरक्षित शव की तरह मृत आँखें लिए.
हम सबके पास होनी चाहिए अँधेरी दीवार में
कुछ एक ऐसी भुरभुरी ईंटें,
जो ज़रुरत पड़ने पर हटायी जा सकें
और खुल सके परिदृश्य विस्तृत सागर की ओर.
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स्पंदित पेड़ का पत्ता पत्ता मेरे लिए अभी इन पंक्तियों को दोहराता हुआ झूमता सा लग रहा है… और हम कहीं न कहीं आश्वस्त और शांत कुछ एक अक्षर समेट रहे हैं…! कुछ एक ईंटें हटाकर उस पार देखने का प्रयास कर रहे हैं जहां लहरा रहा है सागर और लहरें भी वही कुछ प्रेषित कर रही हैं जो  हिलते डुलते पत्ते कहे जा रहे हैं तब से अनवरत…!
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तस्वीर: यूरोप के एक छोटे से देश एस्टोनिया के सबसे बड़े शहर और राजधानी तालिन्न में ली गयी है. आज दीवार के भुरभुरे ईंटों की बात आई तो यह तस्वीर भी याद हो आई… आज लग जाए यहाँ…  दूर किसी सागर के परिदृश्य की ओर खुलने की आशा लिए हुए. 

शनिवार, 27 जुलाई 2013

कल के लिए!


तीन बज रहे हैं... सुबह हो रही है... एक ओर हलकी सी लाली छाई हुई है... दूसरी ओर चाँद भी पूर्ण वैभव के साथ खिला हुआ है...! इस मौसम में इस वक़्त जगे हुए हों, ऐसा हुए बहुत समय बीता... आज जाने क्यूँ नींद खुल गयी है और अब सोने की इच्छा नहीं है. गर्मियों में यहाँ रात अँधेरी होती ही नहीं... कुछ एक घंटे छोड़ दें तो समझो इन दिनों दिन ही दिन है स्टॉकहोम में. 
अम्बर का नित परिवर्तित होता रंग... उसपर हो रही चित्रकारी... देखते हुए... खुशी और आंसू के बीच झूलते हुए... जगा जा सकता है कुछ एक रातें यूँ ही! बहुत समय तक नहीं बचेगा ये सब... अब मौसम बदलने ही वाला है... अगस्त की दस्तक के साथ छुट्टियाँ भी समाप्त और ये उजाले का मौसम भी तो धीरे धीरे लुप्त होने वाला ही है.  फिर वही बर्फीली सुबहें... निराश निर्जन से समुद्री तट... और ढेर सारा अन्धकार. तब प्रतीत होता है जैसे प्रकृति सारे रंग छुपा कर श्वेत श्याम रंग के संयोजन से अपना चमत्कार  रचने में निमग्न रहती है…!
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आज यह लिखते हुए कभी इसी मौसम में लिखी गयी एक कविता की पंक्तियाँ स्मरण हो आ रही हैं. पन्ने पलटे तो मिली कविता और छूट रहा कोई किनारा भी हाथ आया…! रहने वाला नहीं है कुछ भी यथावत… हर एक क्षण परिवर्तन की लहर से होकर नये क्षण में बदल रहा है… हर क्षण हम बदल रहे हैं… नष्ट हो रहे हैं… हमेशा नहीं रहने वाला सामर्थ्य ही… न हम ही…   
इसलिए
कल के लिए ज़रूरी है,
आँखों में ही सही
आज कुछ रौशनी बसाई जाए!
आज
अनुकूल मौसम में,
कल के लिए
कुछ कलियाँ उगाई जाए!!
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आज लिख पा रहे हैं, लिख लें… कुछ एक 'कविताओं की कहानी' उतर आये पन्नों पर…! क्या पता पलक झपकते ही फिर कब लिखने का मौसम बीत जाए…! पंछी बोल रहे हैं… उनकी आवाज़ कहीं से आकर खिड़की पर बैठ गयी सी लगती है…! जीवन अपनी गति से चल रहा है…! रूठी कलम कुछ कुछ मान सी गयी है… कि कभी कभी ज़रूरी होता है शब्दों के लिए भी लिख जाना; बनना जो है उन्हें संबल…  भविष्य में…  किसी हताश पल के लिए, संजोना है उन्हें प्रकाश बीते कल का… आने वाले कल के लिए!
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तस्वीर: पहले ही कभी की ली हुई है… अम्बर अभी भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है, हो सकता है कुछ एक रंग छूट गए हों तस्वीर में… पर है आज का अम्बर भी ऐसा ही इसलिए यही तस्वीर! आज की तस्वीर लगायें भी तो क्या हू-बहू उतर पायेगा अम्बर का वास्तविक स्वरुप तस्वीर में…? शायद नहीं! आखिर कहाँ संभव है दृश्य को उसकी समग्रता में कैद कर पाना… ये कुछ मन की आँखों में ही बसाया जा सकता है, वहीँ संजोया जा सकता है… इन सामान्य सी प्रतीत होने वाली विशिष्ट अनुभूतियों को मन के धरातल पर ही जिया जा सकता है!

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

कि सभी घूमते पहिये करते हैं मौत का प्रतिवाद!


अनुवाद करना बेहद थका देने वाला काम है… एक दूसरी ही दुनिया से मानों भाव को अपनी भाषा में उतार ले आने की अप्रतिम कोशिश… और इस प्रयास में कितना कुछ टूटता रचता सा अपने भीतर ही. कविताओं में कितनी ही सूक्ष्म बातें कह जाता है कवि…  उसकी चेतना जाने किस धरातल पर जाकर क्या क्या अनुभूतियों के चित्र खींच आती है… उन सभी बातों को अपने धरातल पर जीकर शब्द देना बड़ा दुष्कर कार्य है.
पर ये कविता ही है, जो इस तरह उग आती है भीतर कि हर स्थूल सूक्ष्म दीवार को लांघ एक से दूसरी भाषा में रच-बस जाने के अपने हुनर को बार बार सिद्ध करती सी लगती है. सो, गुज़रना हो रहा है स्वीडिश कविताओं से और उनका अनुवाद करते हुए जी रहे हैं कितने ही एहसास अपनी भाषा के धरातल पर अपने आसमान के नीचे. कभी मन व्यथित हो जाता है कवि की अनुभूतियों को जीकर… तो कभी मन हो जाता है निराश जब नहीं मिलते उपयुक्त शब्द किसी भाव को अपनी भाषा में टटोल सकने के लिये… फिर कुछ देर चलता है बंद आँखों से देखना कुछ एक अनगढ़े शब्द और फिर वहीँ से प्रकट हो आते हल को… और बहुत बार एक अनूठी ख़ुशी से आह्लादित होता है मन किसी सार्वभौम सत्य के उद्घाटन पर… कोई जी गयी सच्चाई, अपना ही कोई विश्वास जब दिख जाता है किसी कविता में… फिर सारी थकान चली जाती है, एक अकथ संतुष्टि का भाव ढँक लेता है पूरे अस्तित्व को. 
कभी लगता है कविता वो विधा है जो हो ही नहीं सकती अनूदित, एक भाषा से दूसरे तक की यात्रा में उसकी आत्मा कहीं छूट जाती है पीछे ही. फिर लगता है कविता ही वो एकमात्र विधा है जो सबसे अधिक करीने से हो सकती है अनूदित क्यूंकि कविता में  भावों की सघनता को जी लेने पर जब वह किसी और रूप में होती है प्रस्फुटित तो भी उसकी आत्मा वही रहती है, बदलता है तो बस भाषारूपी शरीर ही. बिना भावों की सघनता के संभव नहीं है कविता और उस सघनता तक पहुँचने पर सृजन स्वयं प्रवाहित हो जाता है… अनूदित होने को सहर्ष तैयार कविता स्वयं हाथ पकड़ कर मदद करती है और मन बस साथ में बहता चला जाता है.  आजकल यही सब कुछ जीने में खुद को उलझाये हुए हैं हम...
आज लिखते पढ़ते हुए ट्रांसट्रोमेर की एक कविता "चार मनोदशाएँ" का अनुवाद कर रहे थे… कविता चौथी मनोदशा का वर्णन करते हुए कुछ यूँ विराम लेती है: 

रास्ता कभी ख़त्म नहीं होता. क्षितिज आगे की ओर दौड़ लगाता है.
पंछी पेड़ पर संघर्षशील रहते हैं. धूल पहियों के चारों ओर चक्कर लगाती है.
कि सभी घूमते पहिये करते हैं मौत का प्रतिवाद! 

स्वीडिश भाषा से हिंदी में उतरते ही मेरे लिए यह भाव एकदम स्पष्ट और स्वयं को सिद्ध करने हेतु प्रतिबद्ध सा प्रतीत होने लगा… मन को ढेर सारी सांत्वना देती हुई इन पंक्तियों को लिखने के बाद एकदम से चुप हो जाने का मन किया, कुछ बिलकुल अनमोल सा नज़र आने पर कुछ एक पल का विराम ले उस भाव को जी लेने की चाह ने किताब बंद करवा दी… अगली कविता की ओर बढ़ने नहीं दिया. इसी विराम में नीले अम्बर तले लिख रहे हैं हम कि खुद से बात करना एक चुप्पी के बाद ज़रूरी सा लगने लगा. 
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मौत, कब्रगाह एवं इन अलौकिक रहस्यों पर कितनी ही बेहतरीन स्वीडिश कविताओं से अबतक गुज़र चुके हैं हम, कुछ का अनुवाद भी किया है… इंसान की उहापोह को रेखांकित करती, नीरव शांति का संगीत रचती जीवन और मृत्यु के एकाकार हो जाने की कवितायेँशाश्वत सत्य को आवाज़ देती कवितायेँ सार्वभौम कवितायेँ! 
विस्मित हैं हम… कितनी सरलता से  इन्ग्रिद काल्लेनबेक अपनी कविता में कह जाते हैं:  

मौत मात्र एक छोटा सा शब्द है
जिसका किया जा रहा है परिक्षण.

सच! कविता हो सकती है बहुत बड़ा संबल… हो सकती है वो जटिल सत्यों का सरल अन्वेषण. कोई जीए उन्हें, तो जाने!  
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अभी कुछ एक दिन पहले ही यहाँ की एक कब्रगाह में जाना हुआ था… ६४ एकड़ में फैला विशाल क्षेत्र… स्मृतियों का विस्तृत कुञ्ज… हरियाली से खिला हुआ…, उस नीरवता को लिख जाने की चाह है कि वह शाम उतर गयी है भीतर तक. 
लिखेंगे फिर कभी, अभी बस उस कब्रगाह की एक तस्वीर संलग्न… इस विराम में लिखे गए टुकड़े के साथ!
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और अंत में, ऐसी ही किसी कब्रगाह के बारे में निल्स फर्लिन की कविता से कुछ पंक्तियाँ:

मृत सो रहे हैं, देख नहीं रहे हैं कुछ भी 
और न ही उन्हें कुछ अब जीवन की ओर फिर से करता है आकर्षित. 
उनके लिए ये क्षेत्र है एक आरामगाह और जीवितों के लिए 
एक कब्रगाह.
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चिरनिद्रा में लीन आत्माओं को जीवन का मौन प्रणाम… भावभीनी श्रद्धांजलि!
इससे इतर और भला क्या अर्पित करे विकल मन…!

रविवार, 21 जुलाई 2013

सभी को एक रोज़ स्मृति मात्र बनकर ही रह जाना है!

जलते जलते बुझ जाती है बाती... उड़ जाते हैं प्राण पखेरु… पर स्मृतियों की लौ बन कर टिमटिमाते रहते हैं... सदा के लिए चले जाने वाले, यहीं कहीं...
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बादलों के पीछे छुपा सूरज सुनहरे रंग घोल रहा है… संसार रंगने की तैयारियां चल रहीं हैं उसकी... कूचियाँ मिल नहीं रहीं होंगी शायद इसलिए प्रकट नहीं हो रहा है पूर्णरूपेण... पर दिख जा रहा है छिपा हुआ बादलों के पीछे... 
लगता है, कूचियाँ मिल गयीं उसे या फिर रंगों की प्याली ही उड़ेल दी उसने स्वयं को आच्छादित किये बादल पर? कौन जाने! बाल अरुण ये सारी लीलाएं कर के निकल ही आएगा बादलों के समुद्र से, धारण कर प्रचंड स्वरुप धरती के कण कण में समा जायेगा…
प्रात पहर के ये कुछ एक क्षण बीतते ही भला कौन मिला पायेगा उससे आँखें...!
देख रहे हैं, इन कुछ एक पंक्तियों के यहाँ उतरने में जो वक़्त लगा उतने में निकल आया है वो बादलों से... अपने सारे ताम झाम के साथ, रंग कूचियाँ सब साथ लिए, अब तक तो उसने बहुत कुछ रंग भी दिया है… यहाँ तक की एक टुकड़ा किरण का मेरे कमरे में भी प्रवेश कर कुछ कलाकारियाँ कर रहा है… 
चाहे कितना भी जतन कर ले वह, उदासियों में रंग भरना इतना सरल भी नहीं! मृत्यु की नीरवता... किसी का चले जाना... पीछे छूट गए लोगों का रोना बिलखना... इस सबसे परीचित है किरण भी… आखिर रोज़ जीती है वह अवसान के दर्द को... रोज़ डूबता जो है सूरज! ये और बात है कि यहाँ डूबा तो कहीं और दिन का आगाज़ हो रहा होता है... यहाँ अनुपस्थित होता है जब, तब वह पूर्ण वैभव के साथ कहीं और उदित हो रहा होता है… वस्तुतः वह कभी मिटता नहीं है… बस अदृश्य हो जाता है अगली सुबह तक के लिये. हम इंसान भी शायद शरीर त्यागने के बाद अदृश्य हो जाते हैं बस, मिटते नहीं... इधर शरीर चिरनिद्रा में लीन हुआ और उधर कहीं आत्मा यादों का रूप धर हृदय की दुनिया में जाग उठती है… चले जाना मात्र अदृश्य हो जाना ही है… सूरज की तरह एक जगह डूब जाने का अभिनय कर कहीं और उगना! 
भगवान कहते हैं-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।
हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही प्रकट हैं, फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना? 
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कल सुबह का सूरज जब वहाँ दूर उगा होगा, तब देखा होगा उसने वह सब... अचानक फूफा जी का आँखें मूंदना... उनका चुपके से आई मौत का वरण करना... उसके बाद का हृदयविदारक दृश्य, सब वैसे ही चिन्हित कर गया जब कुछ घंटों बाद उसका यहाँ सुदूर स्टॉकहोम आना हुआ... 
आज जब सूरज पुनः वहाँ उगा होगा तो पोंछे होंगे न उसने बुआ के आंसू, उनके अन्दर एक शक्ति रोप आया होगा न जिससे वो इस असह्य दुःख की घड़ी में खुद को संभाल सकें... गीता के श्लोक उच्चरित कर आया होगा न उसी तरह जिस तरह फूफा जी स्वर में गाते थे...
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कमरे में कलाकारी कर रही किरण अब जा चुकी है… मेरा मन भी कहीं दूर है... 
जिस तरह सरल हृदयी फूफा जी वो मीठा भजन गाते थे उसी तरह लहरा  रहा है वह स्वर कहीं हवाओं में... जिसे केवल हम सुन पा रहे हैं, इस जहान से वे चले गए पर कहीं तो हैं... वहीँ से आवाज़ आ रही हो...
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सबसे ऊंची प्रेम सगाई
दुर्योधन के मेवा त्याग्यो, साग विदुर घर खाई।
जूठे फल शबरी के खाये, बहु विधि स्वाद बताई।
राजसूय यज्ञ युधिष्ठिर कीन्हा, तामे जूठ उठाई।
प्रेम के बस पारथ रथ हांक्यो, भूल गये ठकुराई।
ऐसी प्रीत बढ़ी वृन्दावन, गोपियन नाच नचाई।
प्रेम के बस नृप सेवा कीन्हीं, आप बने हरि नाई।
सूर क्रूर एहि लायक नाहीं, केहि लगो करहुं बड़ाई।
सबसे ऊंची.......
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बहते आंसू हैं और है पसरा हुआ मौन... इसी के साथ मेरी कल्पना में सच्चिदानंद प्रभु के समीप बैठे आप भजन कीर्तन में मग्न दिख रहे हो फूफा जी, बस बुआ के क्रंदन से द्रवित हो गला रूंधा हुआ है आपका...
ॐ!

बुधवार, 10 जुलाई 2013

एक ऐसी खिड़की!


कहीं कुछ भी नहीं... न आहटें, न आवाज़ें... बस एक खिड़की और खिड़की पर पड़ी बारिश की बूँदें...  बादलों से पटा अम्बर, दूर दूर तक ख़ामोशी और ख़ामोशी में सुनायी पड़ती बरसती बूंदों की अनमनी दस्तक। कई दिनों बाद ऐसे फुर्सत के क्षण हैं, ऐसी बारिश है और खिड़की पर बैठा मन है…
***
लिखने के भी मौसम होते हैं, अपना बहुत सारा साथ चाहिए होता है, कहीं अन्दर पैठना पड़ता है, कुछ भीतरी बाहरी बातों की डोर आपस में टकराती है और उनमें कहीं कोई सामंजस्य की सम्भावना बनती है तब घटित होता है लेखन…
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बस कांच पर पड़ी बूंदों को देख रहे हैं, कुछ सोच रहे हैं और बहुत दिनों बाद नीले अम्बर पर कुछ लिख रहे हैं... कुछ एक ऐसे क्षणों को याद रह जाना चाहिए न। कैमरा जैसे किसी क्षण को तस्वीरों में कैद कर लेता है वैसे ही शब्दों में भी पलों को संजो लेने की अपार क्षमता होती है… शायद तस्वीरों से कहीं अधिक। तभी तो आज अपने ही लिखे पुराने शब्दों को पढ़ कर  कितनी ही बातें, कितनी ही मनः स्थितियां जीवंत हो उठीं। लिख दे रहे हैं यह बात यहाँ पर… पढ़ेगा, तो नीला अम्बर आश्वस्त होगा, कि हम उसे भूले नहीं हैं, बस उलझे रहे सो आना नहीं हुआ इधर। वैसे वो तो पहले से ही जानता है... उसे कोई शिकायत भी नहीं है! 
काश! सारे रिश्ते भी ऐसे होते, ज़िन्दगी भी ऐसी ही होती, कोई सवाल जवाब नहीं होते, चुपके से आया जाया जा सकता, जब चाहते अवकाश ले लेते, जब मन होता आ जाते काम पर वापस...
पर, जो जैसा है अच्छा है... ज़िन्दगी जैसी है अच्छी है… जैसी नज़र आती है उससे कहीं अधिक रहस्यमयी मगर फिर भी अच्छी...! वह एक ऐसी खिड़की है जो अनंत की ओर खुलती है, ये हम पर है कि झांकें उसके पार और जो चाहें थाह लें... दिव्य से दिव्यतम मोड़ हैं... जो चाहें वो राह लें!